स्वप्न मरीचिका, यथार्थ संग


स्वप्न मरीचिका, यथार्थ संग
(एक विचार कहानी) मुख्य चरित्र : खुशाल / लेखा

(दोस्तों / जीवन के झंझावत से निकली एक ऐसी बानगी लिखने की कोशिश में था जिससे कि हर पढ़ने वाला जुडाव सा महसूस करता...... यूँ समझता जैसे लिखने वाले ने उसके अपने मन को उंडेल दिया हो..... पता नहीं कितना सफल हुआ हूँ...........)
सात मंजिली अच्छी भली ईमारत के दूसरे माले पर के एक किराये वाले फ़्लैट से निकलकर मैं जब बाहर को निकला तब नहीं जानता था कि जिस काम के लिए जा रहा हूँ वह स्वप्नों की कब्रगाह साबित होगा | आर्थिक तंगियों से जूझते कई साल गुजार लेने के बाद आखिरी सहारा भी छिना जा रहा था, और इसका अहसास कैसा हो सकता है अब जाकर इसे जान पाया हूँ | दिल में एक अजनबी सा डर पैठ जमता हुआ जैसे जाने से रोकने की कमजोर सी किसी कोशिश में लिप्त हारता जान पड़ता था | जिस रिश्तेदार के साथ काम में इतने सालों अपने को झौंक दिया आज उसी को बोझा लगने लगा हूँ जबकि एक समय था जब इसी शहर में उसके डूबता व्यापार को मेरे ही हाथों ऊँचाई मिली थी | सामने खुद कॉम्पिटिशन खड़ा कर कह देना कि "खुशाल" यहाँ का काम आपके बस का नहीं, सो आपको नये शहर में भेजकर सेट कर दिया जाये तो कैसा रहे?

बरसों से इस व्यक्ति के जुबानी जमाखार्चों को देखता-परखता आ रहा हूँ सो अब भरोसा करना और अपने ही पाँवों पर कुल्हाड़ी मारना एक सामान जाना | लिहाजा नये शहर का प्रस्ताव स्वीकार कर तो लिया मगर पुराना शहर नहीं छोड़ते हुए | शुकर है इतने बरसों में कुछ अलग से भी शुरू कर पाया जिसके दम पर यह कह पाना संभव हुआ | लेकिन इधर कुछ समय से जाने कैसी लीला रची भोले-शंकर ने कि कुछ समझ आकर ही नहीं देता | जाने कैसे अपने जमे-जमाए नये काम में कारीगरों की किल्लत आन पड़ी | बरसों जिन्होंने काम करके दिया आज उन्हीं का अपना काम जम जाने से मेरा काम बंद की सी स्थिति में आ गया | नये कारीगर गधे के सींग बन बैठे | बहुतेरी कोशिशें कर देखीं मगर नतीजा सिफर |

अपने स्वार्थों में डूब कैसे कोई किसी की जिंदगी / परिवार / उसके सपनों को पाद-गट्टम (फुटबॉल) बनाकर खेल सकता है इसे समझना ही नहीं बल्कि भोगना भी कोई मुझसे सीखे आकर कि किस तरह बेबसी का आलम बरपा होता है और उसमें पिसती जिंदगी का आनंद कैसे उठाया जा सकता है |

सात फेरों की कसमें-वादे कब धुंधला गए पता ही न चला ! अर्धांगिनी कब विलग हो अपने आप में सम्पूर्ण हो बैठी इसे कभी समझ नहीं पाया | मासूम सी बचपन वाली निगाहों को छोड़ कोई रिश्ता ऐसा न था जो हल्का सा भी सकून पहुंचा सकता | इधर दूसरी तरफ महँगाई और घर सुरसा बने मुँह फाड़े खाने को तैयार दिखाई देने लगे हैं | बीते ग्यारह बरसों में अपने नाम एक अदना सा घर तक न कर पाया गाड़ी तो दूर की बात है | घर में मासूम सी माँगों को अनदेखा करते कलेजा मुँह को आता है मगर कर भी क्या सकता हूँ, बेचारगी से मुँह तक लेता हूँ ऊपर वाले का लेकिन वो भी कम नहीं, आज तक मुँह दिखाना तो दूर अपनी ऊँगली का एक नाख़ून तक  दुर्लभ कर रखा है | हर दूसरे-चौथे दिन लगता है अब मिला, अब हुआ लेकिन जिन नसीब की रेखाओं पर कभी ध्यान तक न दिया उन्हीं को आड़े आते देख आत्मविश्वास सा डगमगाने लगता है |

हर दिन लगता है इससे बुरा दिन न देखा होगा अब तक परन्तु अगला दिन फिर नये कमाल संग अपनी छटा बिखेरता नजर आता है | अक्सर रातों को सोने की कोशिशें व्यर्थ जान पड़ती देख अब सोने से ही कतराने लगा हूँ | जब तक नींद खुद आकर जबरदस्ती गिरा न दे, सोने की कल्पना ही भयानक हुई जान पड़ती है | किसी दिन जल्दी बिस्तर पकड़ भी लिया तो मन में अनजानी सी घबराहट सवार होकर जागने पर मजबूर कर देती है | कैसे करवटें बदलते रात बीत जाती है पता ही नहीं चलता | खुद को व्यस्त रखने के जो तारीखे खोज रखे थे वे अब बेमानी लगने लगे हैं, लिहाजा उनसे भी दिल बेजार सा होने लगा है |

इसी बीच उसने आकर अपने होने भर से ही ह्रदय में होते डरावने अहसासातों पर कुछ लगाम का सा काम कर दिखाया | जीवन के लेख में परिवर्तन लिए आयी, "लेखा" उसका नाम था | कोई नया तीर न मारा फिर भी सकून की एक लंबी लेखा बन बिन फेरे हम तेरे बन दिखाया उसने | उस पर वैचित्र्य यह कि ये हम तेरे वाली अनुभूति मानसिक स्तर पर होने के बावजूद सामान्य वैवाहिक जीवन से कहीं सशक्त नाते की नींव साबित हुआ | जब भी कोई नयी मानसिक प्रताडना पाता, शीतल छाँव बनी लेखा की काल्पनिक गोद में मुँह छिपा अपने पीड़ित ह्रदय को शांतमय हुआ पाता | और उसने भी कहीं कोई कसर नहीं आने दी, जहाँ भी जरुरत लगती अपने आँचल को फैला ममतामयी सी बन सब समेट लेती अपने भीतर जबकि उसकी अपनी समस्याओं का पारावार न था कोई | पूछने पर "सब ठीक हो जायेगा" जैसे वाक्य को बीज़ मन्त्र मान उच्चारण करती ऐसी लगती जैसे डाल पर बैठा कबूतर दबे पाँव बिल्ली को आते देख अपनी आँखें मूंदे यह सोचने लगता है कि जब मुझे बिल्ली नहीं दिख रही तो मैं ही उसे कैसे दिख सकता हूँ? काश कि ऐसा ही एक आँचल मेरे पास भी होता उसके सारे अनसुलझों को समेट लेने के लिए |

काल्पनिक और वास्तविक जीवन में शायद यही फर्क है कि जो बंद पलकों से नजर आये तो जरुर लेकिन पपोटे खुलते ही ज़माने भर की कड़वाहट/दुःख/तकलीफें म्युनिसिपैलिटी के खुले गटर के ढक्कन सामान नजर आने लगती है जिसके दाँये-बाँए कोई राह, कोई पगडण्डी नहीं | जाना है भी तो सिर्फ गिरने के लिए | और फिर शुरू भयानक जीवन रूपी गटर से उठ रही सडांध को सहन करने का सिलसिला | अनवरत, अविरल, ज़ार-ज़ार बहते आँसू | बाहर नहीं वरन भीतर को बहते नाले जो दिखते नहीं मगर प्रत्यक्ष बूंदों से अधिक मारक मिलेंगे | कब!! आखिर कब मिलेगी मुक्ति इन जंजालों से?

जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh (12-02-2012)

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Comments

3 Responses to “स्वप्न मरीचिका, यथार्थ संग”

15 February 2012 at 7:15 am

बहुत अच्छा लगा यहाँ आकार |
आशा

Amrita Tanmay said...
15 February 2012 at 11:01 am

यथार्थ व काल्पनिकता के बीच का महीन ताना-बाना खूबसूरती से बुना है जो कई सवाल छोड़ जाती है . अच्छी लगी..

16 February 2012 at 7:31 am

बहुत अच्छा लगा यहाँ आ कर |
अच्छी रचना |
बधाई

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