गूँज उठी..
चिर-प्रतीक्षित कुहुक..
घुल गया शहद सा..
अरसे से भूली कुहुक..
हुलरा गया फिर सुनना तुम्हें..
याद है मुझे..
अपना बचपन..
अमराई के आते बौरों संग..
आता कोकिल स्वर तुम्हारा..
इस डाल तो कभी उस डाल..
स्वादु संगीत सा..
आता तुम्हारा स्वर..
और तुम...!!
डाली-डाली फुदक-फुदक..
नन्हे बालकों मध्य..
करती संगीत समारोह अपना..
सुर में तुम्हारे सुर मिलाते..
कुहू-कुहू करते बच्चे..
यही प्रसंशा थी शायद..
हाँ.. याद है मुझे..
मंद होता नीलाभ आकाश..
धूप चढ़े..
आरोह-अवरोह इक संग..
चमक सह..
मंदित होती नीली आभा..
मुन्दित पलकों की झिर्री से..
दीठ पड़तीं कृष्ण वर्णी तुम..
कौए और तुम में कभी फर्क न मिला..
पीछा किया सदैव कुहुक का..
दो-फुटी ऊंची मेंड खेत की..
दौड़-भाग अंतिम किनारे तक..
था डेरा वहीँ तुम्हारा..
अबके बौर ना आया..
तुम कैसे आती..
रत प्रतीक्षा में तुम्हारी..
सूने खलिहान..
सूनी हैं बागिया..
न थीं तुम शहर में..
गाँव भी अब तरसे..
बिन मिले कुहुक से..
कैसे पकेंगे आम..
कि अब स्वाद नहीं..
बेस्वाद हैं आम..
_____जोगेंद्र सिंह "Jogendra Singh" ( 26 मई 2010_05:00 pm )
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Comments
4 Responses to “चिर-प्रतीक्षित कुहुक”
जोगेंद्र जी , आपकी कविता हिन्दुस्तान के ग्राम का दर्शन करा गयी . पन्त जी की ग्राम्य अनायास याद आ गयी . कुहुक को दर्शन नहीं प्रकृति और मनुष्य के सामीप्य की अपेक्षा है ; जो आपने बखूबी दिया . सुन्दर रचना के लिए
धन्यवाद्! चित्र चलचित्र की तरह छोटे से पट पर बहुत कुछ कह गए हैं .
▬▬► अपर्णा जी.. आपकी कविता को देख जो विचार अनायास ही मन में आये बस उन्हें ही लिख दिया.. इसके लिए आपका कोटि-कोटि आभार..
जोगी सर ये कुहुक बड़ी प्यारी लगती है. आज भी कभी कभी प्रातः काल में जब उसकी आवाज़ सुनता हूँ तो मन प्रसन्न हो जाता है. बहुत सुन्दर!!!
▬▬► राणा..सच कहते हो दोस्त.. कोकिला है ही ऐसी चीज़..
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