पर बहते मेरी आँखों से क्यूँ हैं...


दिया है दर्द तुमने ही... क्यूँ ना अपनाते दर्द तुम भी...
पिसता रहूँगा मैं कब तक.. वफ़ा और ज़फ़ा के बीच...

है अजीब दास्ताँ.. अजीब सा ही सफ़र इन आंसुओं का,
भर गया है दामन बहते आंसुओं से अपने ही,
बख्श दी गयीं भीगीं पलकों को कुछ ओस की बूंदें,
कितना भीगीं पलकें.. अब क्या जान पाओगे तुम,
दामन तर है.. ना इलज़ाम है फिर भी तुझ पर,
हो जब दर्द भी अपना..कैसे होते आँसू उधार के..?
दिया है दर्द तुमने.. पर बहते मेरी आँखों से क्यूँ हैं...

______________जोगेंद्र सिंह ( 01 अप्रैल 2010 ___ 11:25 pm )

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Comments

4 Responses to “पर बहते मेरी आँखों से क्यूँ हैं...”

17 April 2010 at 4:03 pm

हो जब दर्द भी अपना..कैसे होते आँसू उधार के..?
दिया है दर्द तुमने.. पर बहते मेरी आँखों से क्यूँ हैं...
It reminds me of Keats-
We look before and after
And pine for what is not
our sincerest thoughts with some pain is fraught
Our sweetest songs are those that tell of saddest thought.

siddharth said...
24 April 2010 at 2:31 pm

Mind blowing poem sir ji.........

prakriti said...
29 April 2010 at 8:33 am

पीड़ा का अनुवाद हैं आँसू
एक मौन संवाद हैं आँसू
दर्द, दर्द बस दर्द ही नहीं
कभी-कभी आह्लाद हैं आँसू
जबसे प्रेम धरा पर आया
तब से ही आबाद हैं आँसू
इनकी भाषा पढ़ना 'मित्र'
मुफ़लिस की फ़रियाद हैं आँसू!

Unknown said...
26 June 2011 at 12:27 pm

▬● प्रकृति जी , आपकी लाईन्ज़ बेहद खूबसूरत हैं........

(मेरी लेखनी, मेरे विचार..)

(अनुवादक पन्ना..)

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