"स्त्री-पुरुष" ::: "Male-Female"
( "स्त्री की व्यक्तिगत जिन्दगी मे पुरुष मित्र कोयले की भाँति होते है......... गर्म होने पर वो जला देते है , और ठन्डा होने पर कालिख ।" )उपरोक्त पंक्तियाँ आज मेरी किसी महिला मित्र ने फेसबुक में अपनी वाल पर लिखीं थीं ! मुझे लगा कि आज के परिप्रेक्ष्य में यह बात चरितार्थ नहीं होती है ! सो कहे जाने पर लगा कि इस पर अपने विचार भी व्यक्त कर ही दूँ...
मेरा सोचना है कि इस बात से सहमत होने का सवाल ही नहीं उठता है स्त्री कि व्यक्तिगत जिन्दगी मे पुरुष मित्र कोयले की भाँति होता है ! क्यूंकि जब आज की स्त्री अपने पूर्ण समझदार होने का दावा बड़े ही असरदार तरीके से करती है ! तो क्या इस मित्रता के सही-गलत होने जैसी हलकी सी परख भी क्यों नहीं कर पाती वह !
गर्मी से जल जाना और ठंडा होने पर कालिख ये सब किताबी बातें हैं ! असल जीवन में दोनों ही जानते हैं कि क्या सही है और क्या गलत है ! इसके बावजूद भी कुछ होता है तो दोनों ही जिम्मेदार कहलायेंगे, ना कि कोई एक ! ये तो वही बात हो गयी कि बराबरी के समय भी स्त्री सबसे आगे और कभी कुछ सिर पर पड़ता नज़र आये तो फिर वही बारहवीं सदी की अबला नारी बन जाती है ! एक ही नारी में एक ही समय ये विरोधाभास क्यों...? और बात अगर जलने, राख होने या कालिख लगने की ही है तो जाइए और देखिये अपने आस-पास ही जाने कितने पुरुष ऐसे मिल जायेंगे जिनकी जिंदगी में स्त्री ही पुरुष का पात्र निभा रही है ! उस स्थिति में जलता भी पुरुष ही है, कालिख भी उसी के मुंह पर पुतती है, और निष्कासित भी वही बेचारा होता है !
आज जाने कितने प्रताड़ित नर हैं जिन्हें वाकई मदद की भी आवश्यकता है ! कभी इस ओर भी ध्यान दीजियेगा, स्त्री के लिए गहने की तरह होता है रोना-धोना ! सदियों से स्त्री का रोना हर किसी को सामान्य महसूस होता है, लेकिन यही कार्य पुरुष करे तो नामर्द ! बेचारा जाए तो आखिर जाए कहाँ...? कैसे दिखाए कि उसे भी रोना आ सकता है ! अपनी विपदा किसको जाकर रोयें...? कोई समझेगा तो क्या बस उसी का मजाक बन कर रह जाएगा !
और फिर अगर नारी जीवन में आने वाले तमाम पुरुष कोयले सामान ही होने लगे तो वह उन्हें स्वीकारती ही क्यों है...? मुझे नहीं लगता की नारी विचार शून्य होती होगी... स्त्री हो या पुरुष गर्मी दोनों को जला देती है, ठंडा होने पर दोनों ही सामान असर में लिप्त नज़र आते हैं ! फिर दोष एक ही पर क्यूँ आयद होता है...? कैसे कह सकते हैं की ऐसी गलतियों का खामियाजा सिर्फ स्त्री के ही भुगतने में आता है...? जो मानुष होता है वह भी कोई बचा नहीं रहता ! मुझे लगता है कि आज हम गर्म, ठन्डे, कालिख एवं राख जैसी बातों से काफी ऊपर आ चुके हैं ! इन पुरातनपंथी सोचों के पीछे भागना शायद अब बेवकूफी ही हो ! दोनों ही ने अपने-अपने सिर के उपरी हिस्से में बुद्धि रूपी किराएदार को पाल रखा है, तो बेहतर है कि सही और गलत को केवल वास्तविक परिस्थियों के लिए ही छोड़ दिया जाए ! संभव है वही कोई फैसला कर पाए !
मुझ पर उस वाल पोस्ट पर कुछ लिखने के लिए कहा गया था अन्यथा सच यह है कि मैं इस मुद्दे पर लिखना नहीं चाहता था...
अब आप लोग ही बताएँ... आप क्या सोचते हैं इस बारे में...??????????
__________________जोगेंद्र सिंह ( 13 अप्रैल 2010 03:11 pm )
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