जो है आज वो कल होगा कैसे...???
Thursday, 15 April 2010
- By Unknown
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कविता कोष
कलकल कर गिरते झरने की मधुर ध्वनि,
अब हुलराती उछ्लाती मन को है दिन रैन,
आती कहाँ से है जाती कहाँ को जल धार,
देखें उत्तर क्यूँ इसका.. क्यूँ ना देखें बीच,
खोने से पहले लहरों, भंवरों और सागर में,
निकलती जहाँ से छाप छोड़ जाती अपनी,
कनात वृक्षों की या होती बाकी हरियाली,
ना हो पाता सीधे से तो भीतर ज़मीन के,
करती उनको सिंचित जीवन धारा से अपनी,
विभीषिका हो बाढ़ सी तब भी है छोड़ जाती,
तत्व नवजीवन के मिटटी में चहुँ ओर,
करती ना भेद वह.. हो चाहे जीव या इंसान,
देती जल सबको ना किया बंटवारा है उसने,
क्यूँ करता है कलुषित मानव इस भाव को,
समझा सब कुछ पर क्यूँ उम्मीद दूजे से है,
क्यूँ ना बनता खुद पहला क्यूँ ना आगे आता,
जोह बाट दूजे की कब तक राह ताकेगा मानुष,
आ जाओ मिल जुल कर हम तुम करें एक नया,
आह्वान कि बचायें अब जल ही है जीवन अपना,
ना करो बर्बाद इसे तुम आज है कल को तरसेंगे,
सोचो... सोचो... ठीक से सोचो... अब जागो तुम,
दिन रैन हैं करते लिए बच्चों के हम लाख जतन हैं,
दे पायेंगे हम कैसे... जो है आज वो कल होगा कैसे...???
____________जोगेंद्र सिंह ( 30 मार्च 2010 ___ 04:50 pm )
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2 Responses to “जो है आज वो कल होगा कैसे...???”
You have delineated a very true picture. Really appreciable.
thank you Aparna...
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