तुम..
Tuesday, 20 April 2010
- By Unknown
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कविता कोष
तुम ही तुम बसे हो सर्वस्व में !
तुम भी तुम हो और मैं भी तुम !
तुम्ही से जीवन.. मरण तुम्हीं से !
साँसों में बसा वो नाम तुम्हीं हो !
सुबह का पहला ख्वाब तुम्हीं हो !
साँझ की पहली याद तुम्हीं हो !
पहले हो रब से मेरा रब तुम्हीं हो !
जाओ दिल से तो याद करूँ तुम्हें !
न जाती दिल से वो याद तुम्हीं हो !
_____जोगेंद्र सिंह ( 17 अप्रैल 2010___10:31 pm )
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Comments
4 Responses to “तुम..”
Jogi
The poem is fabricated with the soft thread of love. Love is everlasting and your poem sings the song of this pure love.
nice poem ....
सुन्दर अभिव्यक्ति योगेन्द्र जी........
"उजाले अपनी यादों के हमारे संग रहने दो नाजाने किस गली में जिन्दगी की शाम हो जाए..."
प्रेम-पथ की यात्रा अविराम है
सार्थक लेकिन सदा निष्काम है
प्यार का अभिप्राय चंचलता नहीं,
प्यार अविचल साधना का नाम है।
@...Aparna ji...@
@...Prakriti dee...@
@...Kant...@
thanx to all for appreciation...
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